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बिहार में राष्ट्रवाद Vs सामाजिक न्याय, जातीय समीकरणों में खोया जनाधार खोज रही कांग्रेस

 

  • बिहार में म्‍यान से निकल चुकीं राजनीतिक तलवारें, मुद्दे भी तय
  • देश की भावी राजनीति की दिशा भी तय करेगा यह सत्‍ता संग्राम
  • दलित-मुस्लिम-सवर्ण वोटों का नया संतुलन बनाना चाहते राहुल

पटना, पार्टी पॉलिटिक्‍स डेस्‍क। Bihar Politics: भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में दो समानांतर धाराएं स्पष्ट रूप से उभर चुकी हैं। एक ओर की राजनीति राष्ट्रवाद (Nationalism) और धार्मिक भावनाओं (Politics of Religion) पर केंद्रित है, तो दूसरी ओर की राजनीति जातिगत पहचान (Caste Politics) और सामाजिक समूहों के आधार पर चल रही है।  22 अप्रैल को हुए पहलगाम आतंकी हमले (Pahalgam Terror Attack) और उसके बाद भारत-पाकिस्तान के बीच उपजे तनाव (India-Pakistan Tension) ने राष्ट्रवादी भावनाओं को चरम पर पहुंचा दिया। जब निर्दोष पर्यटकों को उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर निशाना बनाया गया, तो यह मुद्दा धार्मिक आक्रोश से भी जुड़ गया। नतीजतन, युद्ध जैसे हालात बन गए और पूरे देश में पाकिस्तान को कठोर सबक सिखाने की मांग उठने लगी।राजनीतिक दलों ने भी इस माहौल को अपने-अपने नजरिए से भुनाने की कोशिश की। जैसे ही सीजफायर की घोषणा हुई, विपक्ष ने अपने सियासी अस्त्र तैयार करने शुरू कर दिए। एक तरफ मध्‍य प्रदेश सरकार के मंत्री ने महिला सेना अधिकारी कर्नल सोफिया कुरैशी पर आपत्तिजनक बयान देकर माहौल को और गर्म कर दिया, वहीं समाजवादी पार्टी के रामगोपाल यादव ने सेना में जाति का मुद्दा उठाकर राजनीतिक बयानबाजी को नई दिशा दे दी। कांग्रेस (Congress) ने इस पूरे घटनाक्रम को बिहार में अपनी नई राजनीतिक रणनीति का आधार बना लिया। इसी क्रम में राहुल गांधी (Rahul Gandhi) का हालिया बिहार दौरा इस बात की पुष्टि करता है कि कांग्रेस अब जातीय समीकरणों के जरिये अपने खोए जनाधार को फिर से पाने की कोशिश कर रही है।

बिहार में कांग्रेस की वापसी की कवायद

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि राहुल गांधी की हाल की बिहार यात्राएं कांग्रेस की एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा हैं। इस वर्ष उन्होंने राज्य का कई बार दौरा किया है— हर बार किसी सामाजिक न्याय से जुड़े प्रतीक या नेता को केंद्र में रखकर। कभी संविधान बचाओ सम्मेलन तो कभी जगलाल चौधरी या आंबेडकर की जयंती। उन्होंने ज्योतिबा फुले के नाम पर भी राजनीतिक दांव चला। निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग उठाई और यह भी ऐलान कर दिया कि अगर सत्ता में आए तो आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा को खत्म कर देंगे।

क्या कांग्रेस बिहार में अलग राह पर है?

राहुल गांधी की यात्रा के दौरान तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) से लगातार दूरी बनाना इस बात की ओर इशारा करता है कि कांग्रेस शायद राष्‍ट्रीय जनता दल (RJD) के साए से बाहर निकल कर स्वतंत्र रणनीति बना रही है। हाल ही में कांग्रेस ने बिहार की कमान सवर्ण नेता अखिलेश प्रसाद सिंह से लेकर दलित नेता राजेश राम को सौंप दी है। साथ ही, सुशील पासी को सह प्रभारी बनाकर दलितों में अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश की है। इसे 1990 के बाद राज्‍य में कांग्रेस की गिरावट को रोकने की कवायद के रूप भी देखा जा रहा है। 1990 के बाद लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) के उदय और फिर नीतीश कुमार (Nitish Kuamr) की सक्रिय राजनीति ने कांग्रेस को लगातार कमजोर किया है। अब राहुल गांधी की कोशिश है कि दलित, मुस्लिम और सवर्ण वोटों का नया संतुलन तैयार किया जाए।

1990 के बाद कांग्रेस की गिरावट

बिहार में कांग्रेस की गिरती सियासी साख को आंकड़ों से साफ समझा जा सकता है:

वर्ष      मत प्रतिशत

1990 24.78%

1995 16.30%

2000 11.06%

2005 6.09%

2010 8.37%

2015 6.70%

2020 9.48%


एनडीए का राष्ट्रवादी दांव

दूसरी ओर राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) ने भी अपने चुनावी अभियान में राष्ट्रवाद को प्रमुख मुद्दा बना लिया है। 'ऑपरेशन सिंदूर' (Operation Sindoor) के बाद प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी (Narendra Modi) के दौरे को राष्ट्रवाद से जोड़कर ही देखा गया है। 

साथ ही, पटना एयरपोर्ट (Patna Airport) का नया टर्मिनल, सासाराम-गया फोरलेन और बिहटा एयरपोर्ट जैसी विकास योजनाएं भी उनके अभियान को मजबूती दे रहीं हैं। मोदी सरकार की रणनीति साफ है- धर्म, राष्ट्र और विकास को एक साथ पेश कर मतदाताओं को साधना।

महागठबंधन में सीटों की खींचतान

कांग्रेस और आरजेडी के बीच भी सीटों के बंटवारे को लेकर तकरार बढ़ रही है। सूत्र बताते हैं कि कांग्रेस जहां 70 सीटों की मांग पर अड़ी है, वहीं आरजेडी उसे 50 से 60 के बीच ही सीमित रखना चाहता है। जानकारों का मानना है कि कांग्रेस की आक्रामक जातीय राजनीति आरजेडी को भी नुकसान पहुंचा सकती है, खासकर दलित और मुस्लिम वोटों के मोर्चे पर। हालांकि, अंतिम समय में महागठबंधन (INDI Alliance) के फिर एकजुट होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

राजनीतिक रणभूमि तैयार

बिहार में राजनीतिक तलवारें म्यान से निकल चुकी हैं, मुद्दे तय हो चुके हैं। एक ओर राष्ट्रवाद, धर्म और विकास का समीकरण है, दूसरी ओर सामाजिक न्याय, जातिगत गणना और आरक्षण की लड़ाई। बिहार का आगामी चुनाव न केवल सत्ता का संग्राम होगा, बल्कि यह देश की भावी राजनीति की दिशा भी तय करेगा।

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