वैचारिक नींव: सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का किया संचार
लालकृष्ण आडवाणी ने 1050 के दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के माध्यम से भारतीय राजनीति में कदम रखा। उनकी वैचारिक यात्रा जनसंघ से शुरू होकर बीजेपी तक पहुंची, जो केवल राजनीतिक पदों की नहीं, बल्कि विचारों की स्थापना की यात्रा थी। आडवाणी ने राजनीति को "सेवा और विचार" का माध्यम माना। उन्होंने भारत की सांस्कृतिक अस्मिता और हिंदू चेतना को सकारात्मक राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बनाया, जिसे उन्होंने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में परिभाषित किया।
आज, जब भारतीय राजनीति में विचारधारा की जगह छवि और व्यक्तिगत ब्रांडिंग हावी हो रही है, आडवाणी का वैचारिक आग्रह एक मूल्य-आधारित राजनीतिक मॉडल की याद दिलाता है। उनकी यह सोच कि राजनीति केवल सत्ता का खेल नहीं, बल्कि समाज के लिए दीर्घकालिक दृष्टिकोण का माध्यम है, आज भी प्रासंगिक है।
संगठनात्मक कौशल के बल पर बने बीजेपी की रीढ़
आडवाणी ने बीजेपी को एक विचारधारा-आधारित कैडर पार्टी के रूप में स्थापित किया। उन्होंने संगठन को केंद्र से लेकर बूथ स्तर तक मजबूत करने में अपने जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा समर्पित किया। 1980 में पार्टी की स्थापना के समय से ही वे इसके "भीतर के स्तंभ" रहे। लाखों कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित कर उन्होंने एक अनुशासित और लक्ष्य-केंद्रित संगठन खड़ा किया।
आज पार्टी की सफलता का आधार उसका संगठनात्मक ढांचा है, जो बूथ-स्तरीय कार्यकर्ताओं से लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व तक एक सशक्त नेटवर्क के रूप में कार्य करता है। यह ढांचा आडवाणी की दूरदृष्टि और संगठन कौशल की देन है। उनकी यह विरासत बीजेपी की सांगठनिक संस्कृति में आज भी जीवित है, जो पार्टी को अन्य राजनीतिक दलों से अलग करती है।
राम रथ यात्रा: भारतीय राजनीति का एक बड़ा मोड़
1990 की राम रथ यात्रा भारतीय राजनीति का एक ऐतिहासिक मोड़ थी। सोमनाथ से अयोध्या तक की इस यात्रा ने राम मंदिर के सांस्कृतिक मुद्दे को एक जन-आंदोलन में बदल दिया। इसने न केवल बीजेपी को राष्ट्रीय पहचान दी, बल्कि पार्टी की लोकसभा सीटों को 1984 में 2 से 1991 में 120 तक पहुंचाया। यह यात्रा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि एक वैचारिक जनसंपर्क थी, जिसने ग्रामीण और शहरी भारत को जोड़ा।
22 जनवरी, 2024 को अयोध्या में राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह ने इस आंदोलन को मूर्त रूप दिया। हालांकि, खराब स्वास्थ्य और अयोध्या की कड़ाके की ठंड के कारण आडवाणी इस समारोह में शामिल नहीं हो सके, लेकिन उनकी रथ यात्रा ने इस स्वप्न को साकार करने की नींव रखी थी। राम मंदिर आज न केवल एक धार्मिक स्थल है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक अस्मिता और एकता का प्रतीक बन चुका है। इस उपलब्धि में आडवाणी की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
दलीय हित को व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से रखा ऊपर
1998 से 2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) सरकार में उप-प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के रूप में आडवाणी ने सत्ता के शिखर पर नैतिक संयम का उदाहरण प्रस्तुत किया। उनके पास प्रधानमंत्री बनने के अवसर थे, लेकिन उन्होंने वाजपेयी को समर्थन देकर दलीय हित को व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से ऊपर रखा। 2009 की चुनावी हार के बाद उन्होंने सक्रिय नेतृत्व से पीछे हटकर अगली पीढ़ी को अवसर दिया।
आज की व्यक्तिवादी राजनीति में, जहां नेतृत्व अक्सर व्यक्तिगत छवि पर केंद्रित होता है, आडवाणी का यह संयम एक वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत करता है। उनकी यह नीति दीर्घकालिक भरोसे और लोकतांत्रिक मूल्यों की राजनीति का प्रतीक है।
सक्रिय राजनीति से दूर, लेकिन प्रासंगिकता कायम
आज 97 वर्ष के हो चुके लालकृष्ण आडवाणी स्वास्थ्य कारणों से सक्रिय राजनीति और सार्वजनिक जीवन से दूर हैं। हाल के महीनों में उनकी बार-बार अस्पताल में भर्ती होने की खबरें आई हैं। लेकिन उनकी भौतिक अनुपस्थिति उनकी वैचारिक और सांगठनिक विरासत को कम नहीं करती। बीजेपी के राजनीतिक मुद्दे वर्तमान आज भी राजनीति में उनकी प्रासंगिकता को सिद्ध करते हैं।
- वैचारिक प्रभाव: बीजेपी की राष्ट्रवाद-आधारित राजनीति, जिसमें राम मंदिर, अनुच्छेद 370 का निरस्तीकरण, और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे शामिल हैं, आडवाणी के दौर में बोए गए बीजों का परिणाम है।
- सांगठनिक ढांचा: बीजेपी की बूथ-स्तरीय रणनीति और कार्यकर्ता-केंद्रित मॉडल आडवाणी के संगठनात्मक दृष्टिकोण की देन है।
- सांस्कृतिक राष्ट्रवाद: राम मंदिर का निर्माण और अयोध्या का वैश्विक धार्मिक केंद्र के रूप में उभरना आडवाणी के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विजय है।
2024 में आडवाणी को भारत रत्न (Bharat Ratna) से सम्मानित किया जाना उनकी विरासत का औपचारिक सम्मान था। यह सम्मान न केवल उनके व्यक्तिगत योगदान, बल्कि उनके द्वारा स्थापित वैचारिक और सांस्कृतिक आंदोलन की मान्यता भी थी।
आडवाणी की सबसे बड़ी विरासत यह है कि उन्होंने बीजेपी को केवल सत्ता के लिए नहीं, बल्कि एक विचार के लिए खड़ा किया। उनका नेतृत्व दर्शाता है कि राजनीति में धैर्य, सिद्धांत और वैचारिक प्रतिबद्धता उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितनी लोकप्रियता और सत्ता। उन्होंने अगली पीढ़ी के लिए न केवल अवसर बनाए, बल्कि एक नैतिक और वैचारिक मार्ग भी प्रशस्त किया।
आज जब भाजपा विकास, राष्ट्रवाद और संस्कृति के समन्वय के साथ अपनी रणनीति बनाती है, तब आडवाणी की दीर्घदृष्टि हर कदम पर प्रतिध्वनित होती है। उनकी अनुपस्थिति भले ही शारीरिक हो, लेकिन उनकी बनाई संरचना- वैचारिक, सांगठनिक और नैतिक- बीजेपी की हर रणनीति, हर वक्तव्य और हर विजय में जीवित है।
बीजेपी के पितामह, भारतीय लोकतंत्र के आदर्श...
लालकृष्ण आडवाणी न केवल बीजेपी के "पितामह" हैं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के उस आदर्श का प्रतीक हैं, जिसमें वैचारिक प्रतिबद्धता, संगठनात्मक कौशल और नैतिक संतुलन का समन्वय है। राम मंदिर जैसे ऐतिहासिक आंदोलन से लेकर बीजेपी की राष्ट्रीय शक्ति के रूप में स्थापना तक, उनकी भूमिका एक दीर्घकालिक दृष्टिकोण की मिसाल है। आज, जब भारत एक नए राजनीतिक और सांस्कृतिक युग में प्रवेश कर रहा है, आडवाणी की प्रासंगिकता केवल इतिहास की बात नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य की राजनीति का एक जीवंत हिस्सा है।
