- समीकरणों को झकझोर रही ‘बहुजन-भीम संवाद’ की घोषणा
- किसी के रहमोकरम पर नहीं छोड़ेंगे अपनी राजनीतिक जमीन
संवाद के बहाने दबाव की राजनीति
लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) द्वारा प्रस्तावित ‘बहुजन-भीम संवाद’ कार्यक्रम को महज जनसंपर्क की कवायद मानना भूल होगी। यह एक स्पष्ट राजनीतिक संदेश है- एनडीए में रहते हुए भी चिराग अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पहचान को न केवल सुरक्षित रखना चाहते हैं, बल्कि विस्तार भी देना चाहते हैं। इस संवाद के माध्यम से वे सामाजिक न्याय और पिछड़े वर्गों के अधिकारों की बात कर अपने जनाधार को मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सहयोगी दलों पर यह दबाव भी बना रहे हैं कि उन्हें गठबंधन में सम्मानजनक हिस्सेदारी दी जाए।
राजनीतिक प्रस्तावों के बहाने संदेश की राजनीति
राज्य कार्यकारिणी की बैठक में जिन प्रस्तावों को पारित किया गया, वे स्पष्ट रूप से पार्टी की वैचारिक दिशा और प्राथमिकताओं को दर्शाते हैं। चाहे वह निजी क्षेत्र में आरक्षण (Reservation in Private Sector) की मांग हो या रामविलास पासवान (Ram Vilas Paswan) को भारत रत्न (Bharat Ratna) देने की मांग- इन सबके ज़रिए चिराग सामाजिक रूप से हाशिए पर पड़े वर्गों तक अपनी राजनीतिक पहुंच बढ़ाना चाहते हैं। साथ ही, यह प्रयास उनकी पार्टी को केवल ‘वोट-कटवा’ की छवि से बाहर निकाल, एक स्थायी और विचारधारा आधारित दल के रूप में स्थापित करने की दिशा में है। यह राजनीतिक प्रस्तावों के बहाने उनकी संदेश की राजनीति है।
अधिकाधिक सीटों की चाह, वजूद को लेकर सजग
वर्तमान समय में एनडीए के भीतर सीट बंटवारे की चर्चा तेज है। भारतीय जनता पार्टी (BJP) और जनता दल यूनाइटेड (JDU) जहां 100 से अधिक सीटों पर दावा कर रहे हैं, वहीं चिराग की पार्टी के हिस्से में आने वाली सीटें सीमित दिख रही हैं। ऐसे में ‘बहुजन-भीम संवाद’ जैसे कार्यक्रमों का आयोजन यह संकेत देता है कि चिराग महज बचे-खुचे विकल्पों से संतुष्ट नहीं होने वाले। वे अपने राजनीतिक वजूद को लेकर सजग हैं और चाहते हैं कि सीट बंटवारे में उनका वास्तविक जनाधार झलके।
एक बार फिर निर्णायक शक्ति बनने की कोशिश
2019 के लोकसभा चुनाव में मजबूत वापसी और 2020 के विधानसभा चुनाव में आक्रामक भूमिका निभाने के बाद चिराग पासवान अब एक बार फिर से खुद को ‘निर्णायक शक्ति’ के रूप में स्थापित करने की कोशिश में हैं। भले ही पिछली बार विधानसभा चुनावों में पार्टी को अपेक्षित सफलता न मिली हो, लेकिन जेडीयू को नुकसान पहुंचाने में वह कामयाब रहे थे। यही अनुभव चिराग की रणनीति का मूल आधार बन गया है- यदि सही समय पर हस्तक्षेप किया जाए तो सीमित संसाधनों के बावजूद प्रभाव डाला जा सकता है।
बीजेपी व जेडीयू को 'सहमति से पहले चेतावनी'
बीजेपी और जेडीयू के बीच आपसी खींचतान और छोटी सहयोगी पार्टियों को सीमित जगह दिए जाने की चर्चा के बीच चिराग का यह कदम एनडीए के भीतर 'संकेतों की राजनीति' का हिस्सा बनता जा रहा है। वे अपने कार्यक्रमों से जहां बीजेपी और जेडीयू को 'सहमति से पहले चेतावनी' दे रहे हैं, वहीं यह संदेश भी दे रहे हैं कि वे किसी भी राजनीतिक परिस्थिति में आत्मनिर्भर भूमिका निभा सकते हैं।
प्रशांत किशोर संग गठजोड़ को लेकर अटकलें
प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) और चिराग पासवान के बीच हालिया मुलाकातों और परस्पर सकारात्मक टिप्पणियों को लेकर चर्चाएं तेज हैं। हालांकि, दोनों नेताओं ने किसी गठजोड़ से इनकार नहीं किया, परंतु एक-दूसरे के लिए सॉफ्ट स्टैंड यह संकेत देता है कि बिहार की राजनीति में 2030 को लेकर अघोषित तैयारियां शुरू हो चुकी हैं। प्रशांत किशोर की विकासपरक राजनीति और चिराग की सामाजिक न्याय आधारित सक्रियता किसी भविष्यवर्ती गठजोड़ की भूमिका तय कर सकती है।
एनडीए के अंदर कर रहे पहचान की राजनीति
चिराग पासवान बिहार की पारंपरिक राजनीति से कुछ हटकर ‘पहचान की राजनीति’ को आगे बढ़ा रहे हैं- वह भी एक गठबंधन का हिस्सा रहते हुए। यह प्रयोग अपने आप में जोखिम भरा जरूर है, लेकिन सफल हुआ तो एनडीए में उनकी स्थिति पूरी तरह बदल सकती है। चिराग का यह स्पष्ट संकेत है कि वह सत्ता की चाबी की उस परिभाषा को दोहराना चाहते हैं, जिसे कभी उनके पिता रामविलास पासवान बड़े गर्व से कहते थे- “ये बंगला नहीं, सत्ता है... और इसकी चाबी मेरी जेब में है।”
